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भारत में मूर्तिकला और वास्तुकला का आरंभ कब से माना जाता है ?

भारत में मूर्तिकला और वास्तुकला का आरंभ कब से माना जाता है ?

अन्य कलाओं के समान ही भारतीय मूर्तिकला भी अत्यन्त प्राचीन है। यद्यपि पाषाण काल में भी मानव अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर विशेष आकार देता था और पत्थर के टुकड़े से फलक निकालते हेतु 'दबाव' तकनीक या पटककर तोड़ने की तकनीक का इस्तेमाल करने लगा था, परन्तु भारत में मूर्तिकला अपने वास्तविक रूप में हड़प्पा सभ्यता के दौरान ही अस्तित्व में आई।

इस सभ्यता की खुदाई में अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व ही भारत में मूर्ति निर्माण तकनीक के विकास का द्योतक हैं। मौर्य काल (तीसरी शताब्दी ई.पू.) के महान गोलाकार पाषाण स्तंभों और उत्कीर्णित सिंहों ने दूसरी और पहली शताब्दी ई.पू. में स्थापित हिंदू और बौद्ध प्रसंगों वाली परिपक्व भारतीय आकृतिमूलक मूर्तिकला का मार्ग प्रशस्त किया।

भारतीय मूर्तिकला की विषय-वस्तु हमेशा लगभग काल्पनिक मानव रूप होते थे, जो लोगों को हिंदू, बौद्ध या जैन धर्म के सत्यों की शिक्षा देने के काम आते थे।

अनावृत्त मूर्ति का प्रयोग शरीर को आत्मा के प्रतीक और देवताओं के कल्पित स्वरूपों को दर्शाने के लिए किया जाता था। मूर्तियों में हिंदू देवताओं के बहुत से सिर व भुजाएँ इन देवताओं के विविध रूपों और शक्तियों को दर्शाने के लिए आवश्यक माने जाते थे।


भारतीय मूर्ति कला की प्रमुख शैलियाँ इस प्रकार हैं-

  1. सिंधु घाटी सभ्यता की मूर्ति कला
  2. मौर्य मूर्तिकला
  3. मौर्योत्तर मूर्तिकला
  4. गान्धार कला की मूर्तियाँ
  5. मथुरा कला की मूर्तियाँ
  6. अमरावती मूर्तिकला
  7. गुप्तकाल मूर्तिकला
  8. बाकाटक मूर्तिकला
  9. मध्यकाल मूर्तिकला
  10. चोल मूर्तिकला
  11. आधुनिक मूर्तिकला
  12. वास्तुकला एवं मूर्तिकला


प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय वास्तुकला के बारे में एक अद्भुत तथ्य यह है कि मूर्तिकला उसका एक अविभाज्य अंग थी।
इस संदर्भ में सिधु घाटी की संस्कृति ही शायद एकमात्र अपवाद है, क्योंकि उसकी इमारतें उपयोगितावादी हैं, पर उनमें कलात्मक कौशल नहीं है।

सिंधु घाटी की मूर्तियाँ और मोहरे


The civilization of the Indus River at Mohenjo-Daro.


पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर, इस संस्कृति के फलने-फूलने के मुख्य काल-उसके परिपक्व शहरी चरण के, 2100 से 1750 ई.पू. के बीच कभी होने का अनुमान है, 
मकानों के निर्माण में सामग्री की उत्कृष्टता तथा दुर्ग, सम्मेलन सभागारों, अनाज के गोदामों कार्यशालाओं, छात्रावासों, बाज़ारों आदि की मौजूदगी 
आधुनिक जल निकास प्रणाली वाले भव्य नगरों के समान वैज्ञानिक ले-आउट देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस काल की संस्कृति काफ़ी समृद्ध थी।
स्वाभाविक था कि कला और शिल्प उस समाज में उन्नत अवस्था में थे। इन सभी मूर्तिशिल्पों में से सबसे सुरक्षित हैं। एक व्यक्ति का 7 इंच ऊंचा सिर और कंधा, जिसके चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी और बारीक कटी हुई मूंछे हैं 
इस मूर्ति और मोहनजोदड़ो से मिले अन्य दाढ़ी वाले सिरों तथा सुमेरिया के मूर्तिसंग्रह में कुछ समानता है।
टेराकोटा की विविध वस्तुएं भी है। जिनमें सभी प्रकार की छोटी-छोटी आकृतियाँ और अलग-अलग आकारों और डिजाइनों के सेरामिक पात्र शामिल हैं। 
 दो हज़ार से अधिक सीलें तथा चार सौ से अधिक विभिन्न प्रकार की सीलों के अन्य आकार सिंधु घाटी में पाये गये तथापि अभी भी उनके बारे में कोई पुष्ट अभिलेख और तत्संबंधी जानकारी अनुपलब्ध है। 

मौर्यकालीन कला 


मौर्यकालीन कला 



हड़प्पा युग और मौर्य काल के बीच के अनेक पुरातात्विक अवशेष हमारे पास नहीं हैं। ऐसा संभवत: इस वजय से हुआ, क्योंकि उस काल में भवन पत्थर के नहीं बनते थे।  मौर्य शासन काल की कई बातों का ज़िक्र ग्रीक इतिहासकार मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक 'इण्डिका' में किया है। 

पाटलिपुत्र शहर दस मील लंबा और दो मील चौड़ा था, जो मज़बूत लकड़ी की दीवारों से घिरा हुआ था। उसमें 500 टॉवर और 64 दरवाज़े थे। उसके भीतर शाही महल था जो अपने आकार में ईरान के शाही महल की नकल पर बना था। अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और कला तथा प्राचीन सभ्यता संस्कृति के विकास के लिए बौद्ध मिशनरियों की गतिविधियों का विस्तार किया। 1400 ईसवी के आस-पास जब चीनी बौद्ध यात्री फ़ाह्यान भारत आया, तब उसने शाही महल को खड़े हुए देखा था। 

अशोक स्तंभ


अशोक स्तंभ
अशोक स्तंभ


अशोक ने अपने शासन काल में स्तंभों का निर्माण बड़े पैमाने पर कराया था।इन स्तंभों को उसने बौद्ध धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता के प्रचार प्रसार के साथ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों एवं घटनाक्रमों के प्रतीक के रूप में लगवाया था। अशोक द्वारा लगाये गये उन स्तंभों में अनेक स्तंभों में बौद्ध धर्म की इबारतें भी लिखी हुई थीं। सारनाथ, जहाँ बुद्ध ने अपना पहला व्याख्यान दिया, वहाँ सिंह स्तंभ लगे थे।उस स्तंभ में बैल, घोड़ा, सिंह और हाथी क्रमवार अंकित थे, उनके बीच में चक्र था। जो वाहन का प्रतीक था। ऐसा लगता है कि वह स्तंभ धर्म का वाहन था। यह स्तंभ मूल रूप से विशाल पत्थर का है उस स्तंभ में अंकित आकृतियाँ प्राचीन काल का अद्भुत नमूना हैं और उसमें चित्रित्र कलाकृतियाँ इस ख़ूबसूरती से ढ़ीली गयीं|

बौद्ध स्तूप


बौद्ध स्तूप
बौद्ध स्तूप


अशोक के शासन काल के पहले भी भारत में स्तूप जैसी चीज़ें ज्ञात थीं। मूलरूप से वैदिक आर्यों ने इंटों और साधारण मिट्टी से उनका निर्माण किया था। मौर्यकाल के पहले इस तरह के स्तूपों के उदाहरण नहीं मिलते हैं। 
अशोक के शासनकाल में बुद्ध के शरीर को ध्यान में रखकर स्मृति चिन्हों का निर्माण किया गया और यही स्तूप पूजा के साधन बने।
बौद्ध कला और धर्म में स्तूप को भगवान बुद्ध के स्मृति चिन्ह के रूप में स्वीकार किया गया। स्तूप अंदर से कच्ची ईटों से तथा बाहरी खोल पक्की ईटों से बनाये गये और फिर उनमें हल्का प्लास्टर चढ़ाया गया। 

मानवीय आकृतियाँ


मानवीय आकृतियाँ
मानवीय आकृतियाँ


मौर्यकाल की मानवीय आकृतियों का प्रदर्शन करने वाली अनेक पत्थर की कलाकृतियाँ भी पायी गयी हैं। उनमें एक है- चौरी महिला की संरक्षित प्रतिमूर्ति जो पटना संग्रहालय में रखी हुई है।यह मूर्ति दीदारगंज के निवासियों को मिली थी। उसमें प्रयोग की गयी पालिश और रख-रखाव की तकनीक निसंदेह रूप से मौर्य काल की है।इस मूर्ति के शरीर के निचले हिस्से में वस्त्र हैं। इसके अतिरिक्त उस महिला ने कानों, बाहों और गले में बड़ी मात्रा में आभूषण पहने हुए हैं।

 इस प्रतिमूर्ति को भारतीय कला जगत के विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है। इसी के साथ, चिपके निचले वस्त्र, वस्त्रहीन धड़ एवं प्रचूर आभूषण आम हो गये।

शुंग-सातवाहन युग



शुंग-सातवाहन युग
शुंग-सातवाहन युग


मौर्यों के बाद उत्तर भारत में (184 ईसा पूर्व) मुख्यत: सत्ता में शुंग रहे। सातवाहनों के पास दक्षिण पश्चिम क्षेत्र था। इस युग को प्रारंभिक कला के रूप में कला के इतिहास का दौरा कहा जाता है। शुंग-सातवाहन युग की कला का प्रभाव उत्तर भारत के बोधगया, सांची और भरहुत में बौद्ध आश्रमों के प्रवेश द्वार और रेलिंग में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, फिर भी कला के विकास का यह प्रारंभिक दौर सौदर्यपूर्ण आंदोलन का युग रहा जो कुषाण के शासन काल में कला के विकास के महानतम युग में प्रविष्ट हुआ।

कुषाण काल

कुषाण साम्राज्य में निर्मित मूर्तियाँ मूर्तिकला का अद्भुत उदहारण है। साम्राज्यवाद का कुषाण युग, इतिहास का एक महानतम आंदोलन रहा है, यह उत्तर पूर्वी भारत तथा पश्चिमी पाकिस्तान, (वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान) तक फैला था। ईसवीं की पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी के बीच कुषाण एक राजनीतिक सत्ता के रूप में विकसित हुए और उन्होंने इस दौरान अपने राज्य में कला का बहुमुखी विकास किया।

गांधार मूर्तिकला शैली


गांधार मूर्तिकला शैली
गांधार मूर्तिकला शैली


गांधार मूर्तिकला की सबसे उत्कृष्ट मूर्ति वह है- जिसमें बुद्ध को एक योगी के रूप में बैठे हुए दिखाया गया था। एक सन्न्यासी के वस्त्र पहने उनका मस्तक इस तरह से दिखायी दे रहा है।जैसे उसमें आध्यात्मिक शक्ति बिखर रही हो, बड़ी-बड़ी आँखे, ललाट पर तीसरा नेत्र और सिर पर उभार। ये तीनों संकेत यह दिखाते हैं कि वह सब सुन रहे हैं, सब देख रहे हैं और सब कुछ समझ रहे हैं।

बुद्ध के तीन रूप यद्यपि बुद्ध के ये तीनों रूप विदेशी कला द्वारा भी प्रभावित हैं। 
 कला घरेलू और विदेशी तत्वों का मिलाजुला रूप है। गांधार क्षेत्र की कला के जो महत्त्वपूर्ण तत्व हैं और उनकी जो शक्ति है- वह उत्तर पश्चिमी भारत की बौद्ध कला में देखी जा सकती है 

इसी तरह का प्रभाव खुदाई से निकले पत्थरों में भी देखा जा सकता है, यह पत्थर चाहे अपनी कलात्मक शैली या अपने दैवीय रूप को दिखाते हों लेकिन उनका रोमन वास्तुकला से साम्राज्यवादी समय से ही गहरा संबंध रहा है, मूर्ति की स्थिति, शरीर का आकार और उसका वास्तु ढांचा स्पष्टत: रोमन मॉडल पर ही आधारित है।

मथुरा शैली


मथुरा शैली
मथुरा शैली


ईसा काल की प्रथम तीन शताब्दियाँ मथुरा शैली मूर्तिकला का स्वर्णिक काल हैं। महायान बौद्ध धर्म के नये आदर्शों ने तत्कालीन मूर्ति शिल्पकारों को प्रेरित किया था।यह शैली जैनों ग्रीकों एवं रोमनों की शैलियों से भी प्रभावित थी। जैन शैली द्वारा प्रभावित एक स्तूप की रेलिंग में चित्रित एक आकर्षक महिला की आकृतिया जो अत्यधिक आभूषणों से यिक्त है, 

प्राचीन भारतीय कला की यादगार और उल्लेखनीय कलाकृति सन्न्यास और धर्मपरायणता के सन्दर्भ में मठ की की इन मूर्तियों में कहीं भी अश्लीलता और कामोत्तेंना की भावभंगिमा नहीं दिखायी देती है।

भारतीय कला के इतिहास, मथुरा की कुषाण कला में इसलिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसने प्रतीकवाद और मूर्ति शिल्पवाद को अपनाया और बाद में उसे स्वीकार कर लिया।

गुप्तकालीन मूर्तिकला

भारतीय कला के इतिहास में गुप्त काल को इसलिए महान युग कहा जाता है- क्योंकि कलाकृतियों की संपूर्णता और परिपक्वता जैसी चीज़ें इससे पहले कभी नहीं रहीं। इस युग की कलाकृतियों मूर्तिशिल्प, शैली एवं संपूर्णता, सुंदरता एवं संतुलन जैसे अन्य कला तत्वों से सुसज्जित हुई।

गुप्त धर्म से ब्राह्मण थे और उनकी भक्ति विशेष रूप से विष्णु में थी, किंतु उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लिए भी उदारता दिखायी। पौराणिक हिंदू धर्म में तीन देवता हैं विष्णु, शिव एवं शक्ति।

 शिव के प्रति उनमें विशेष अनुराग था यानी शिव अग्रणी देवता थे। यद्यपि दक्षिण और पूर्व में शैववाद का विकास हुआ तथा दक्षिण-पश्चिम मालाबार के कुछ भागों में एवं पूर्वी भारत में शक्तिवाद का विकास हुआ कृष्ण पर आधारित वैष्णववाद था जो मुख्यत: भारत के उत्तरी एवं मध्यम भाग में केंद्रित रहा।

 इन सभी धार्मिक देवताओं की पूजा सब जगह होती रही और उनके मन्दिर एवं उनकी मूर्तियाँ सब जगह प्रतिष्ठापित हुई। गुप्त कला अध्यात्मिक गुणों से युक्त है और उसकी दृष्टि भी जीवन की गहन सच्चाई को दर्शाती है। यद्यपि गुप्तकाल का प्रारंभिक दौर हिंदू कला पर ज़ोर देता है, जबकि बाद का युग बौद्ध कला का शिखर युग है,

मूर्तियाँ


गुप्त मूर्ति कला की सफलता प्रारंभिक मध्यकाल की प्रतीकात्मक छवि एवं कुषाण युग की कलापूर्ण छवि के मध्य निर्मित एक संतुलन पर आधारित हैं। हिंदू, बौद्ध एवं जैन कलाकृतियाँ मध्य भारत सहित देश के अनेक भागों में पायीं। ये मूर्तिकला में अद्वितीय हैं। बेसनगर से गंगा की मूर्ति, ग्वालियर से उड़ती हुई अपस्राओं की मूर्ति सोंडानी से मिली हवा में लहराते गंधर्व युगल की मूर्ति, खोह से प्राप्त एकमुख लिंग और भुमारा से अन्य कई प्रकार की मिली मूर्तियाँ उसी सुंदरता, परिकल्पना और संतुलन को प्रदर्शित करती हैं। जैसा कि सारनाथ में देखा जाता है।
भगवान हरिहर की मानवाकार प्रतिमा मध्य प्रदेश में मिली है। 

वाराणसी से प्राप्त एक मूर्ति में उन्हें कृष्ण गोवर्धनधारी के रूप में अंकित किया गया है। जिसमें उन्हें बाएं हाथ के सहारे गोवर्धन पर्वत उठाए दिखाया गया है। जिसके नीचे वृंदावनवासी जल प्रलय से बचने के लिए एकत्रित हुए थे। वह भयावह जलवृष्टि इंद्र ने भेजी थी, जो वृंदावन वासियों की अपने प्रति उपेक्षा से क्रोधित हो उठे थे।

बुद्ध की प्रतिमाएं

गुप्तकालीन मूर्तिशिल्प में बुद्ध धर्म का शांति आदर्श अत्यंत भव्यता से बुद्ध की मूर्तियों में अभिव्यक्त हुआ है। उनके चहरे की भाव मुद्रा और मुस्कान उस परम समरसता की अनुभूति को दर्शाती है, जिसे उस महाज्ञानी ने प्राप्त किया था। कायिक स्थिति, हस्त मुद्राएं और अन्य सभी लक्षण प्रवृति-प्रतीकों के रूप में उपस्थित हैंमस्तक अंडाकार भौंहे कमान जैसी, पलकें कमल की पंखुड़ियां, सांची के विशाल स्तूप के प्रवेश द्वारों पर पांचवी सदी में रखी गयी बुद्ध की चार प्रतिमाएं उस कोमलता, लालित्य और प्रशांति को दर्शाती हैं,,बुद्ध की प्रतिमाएं मथुरा में भी मिली हैं, जो बौद्ध धर्म का सुसम्पन्न केन्द्र रहा था।

इस काल में बौद्ध मूर्तिशिल्प का एक अन्य सक्रिय केन्द्र सारनाथ था, जहाँ बुद्ध की खड़ी और बैठी प्रतिमाएं बनाई गई। ।हल्के रंग के बुलई पत्थर से बनी इस प्रतिमा में बुद्ध को बैठकर अपना प्रथम उपदेश देते हुए दर्शाया गया है।
 प्रतिमा की पीठिका के नीचे घुटनों के बल झुके हुए दो भिक्षुक को न्यायचक्र की पूजा करते दिखाया गया है।
 इस न्याय चक्र को बुद्धि का प्रतीक मानते हैं। यद्यपि भित्तिचित्र अजंता की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कलाकृतियां हैं, पर गुहा मन्दिर का स्थापत्य शिल्प और प्रवेश द्वारों पर नक़्क़ाशी भी असाधरण है

पाल मूर्तिकला शैली


पाल शैली की विशेषता इसकी मूर्तियों में परिलक्षित अंतिम परिष्कार है। बिहार और बंगाल के पाल और सेन शासकों के समय में  बौद्ध और हिंदू दोनों ने ही सुंदर मूर्तियाँ बनाई। इस मूर्तियों के लिए काले बैसाल्ट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। मूर्तियां अतिसज्जित और अच्छी पॉलिश की हुई हैं- मानो वे पत्थर की न होकर धातु की बनी हों।

होयसल मूर्तिकला शैली


होयसल शैली (1050-1300ई) का विकास कर्नाटक के दक्षिण क्षेत्र में हुआ। ऐसा कहा जा सकता है कि होयसल कला आरंभ ऐहोल, बादामी और पट्टदकल के प्रारंभिक चालुक्य कालीन मंदिरों में हुआ अपनी प्रसिद्धि के चरमकाल में इस शैली की एक प्रमुख विशेषता स्थापत्य की योजना और सामान्य व्यवस्थापन से जुड़ी है।
होयसल मंदिर वास्तविक वास्तुयोजना के हिसाब से होयसल मंदिर केशव मन्दिर और हलेबिड के मन्दिर सोमनाथपुर और अन्य दूसरों से भिन्न हैं। स्तम्भ वाले कक्ष सहित अंतर्गृह के स्थान पर इसमें बीचो बीच स्थित स्तंभ वाले कक्ष के चारों तरफ बने अनेक मंदिर हैं, जो तारे की शक्ल में बने हैं।


कई मंदिरों में दोहरी संरचना पायी जाती है। इसके प्रमुख अंग दोहैं और नियोजन में प्राय: तीन चार और यहाँ तक कि पांच भी हैं। हर गर्भगृह के ऊपर बने शिखर को जैसे-जैसे ऊपर बढ़ाया गया है, उसमें आड़ी रेखाओं और सज्जा से नयापन लाया गया हैं, जो शिखर को कई स्तरों में बांटते हैं और यह धारे-धीरे कम घेरे वाला होता जाता है।वस्तुत: होयसल मंदिर की एक विशिष्टता संपूर्ण भवन की सापेक्ष लघुता है





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