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नालंदा विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास | History of Nalanda University



नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत का विश्वविख्यात शिक्षण संस्थान था। नालंदा विश्वविद्यालय की दुनिया की सबसे पूराने संस्थानों में अपनी एक अलग पहचान थी। नालंदा शब्द संस्कृत के तीन शब्द ‘ना +आलम +दा’ से बना है. इसका अर्थ ‘ज्ञान रूपी उपहार पर कोई प्रतिबंध न रखना’ से है। नालंदा विश्वविद्यालय को दूसरा सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है, तक्षशिला के बाद ये 800 साल तक अस्तित्व में रही।

नालंदा विश्वविद्यालय कहाँ स्थित है?
Where is Nalanda University located?

नालंदा विश्वविद्यालय बिहार राज्य की राजधानी पटना, से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास स्थित है।


नालंदा विश्वविद्यालय किसने बनवाया ?

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के शासक सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी। पाल साम्राज्य के शासक राजा धर्मपाल (770-810) ई० में नालंदा विश्वविद्यालय का पुनः उत्थान कराया।

नालंदा विश्वविद्यालय क्यो प्रसिद्ध था?
Why was Nalanda University famous?

नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत का विश्वविख्यात शिक्षण संस्थान था। नालंदा विश्वविद्यालय की दुनिया की सबसे पूराने संस्थानों में अपनी एक अलग पहचान थी।नालंदा विश्वविद्यालय बौध धर्म की महायान बौद्ध की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। विद्यालय में बौद्ध धर्म के साथ साथ अन्य धर्मों की शिक्षा भी दी जाती थी। 

विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी आते थे।
विश्वविद्यालय में चीनी यात्री ह्वेनसांग (629-645)ई० राजा हर्षवर्धन (606-647)ई० के शासन काल में भारत आया। ह्वेनसांग नालंदा महाविहार में पढ़ने के लिए तथा बौद्ध ग्रंथों को एकत्रित करने के उद्देश्य से भारत आया। ह्वेनसांग ने यहां लगभग साल भर शिक्षा ली और इसे दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय भी बताया था। 

नालंदा विश्वविद्यालय इतना विशाल था इस बात का अनुमान हम इस बात से लगा सकते हैं कि उस समय इसमें तकरीबन 10,000 विद्यार्थी और लगभग  2,000 अध्यापक थे।नालंदा विश्वविद्यालय विश्व का यह प्रथम पूर्णत: आवासीय विश्वविद्यालय था नालंदा की लाइब्रेरी में तकरीबन 90 लाख पांडुलिपियां और हजारों किताबें रखी हुई थी।

विश्वविद्यालय में चयन मेरिट के आधार पर होता था और निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी. साथ ही उनका रहना और खाना भी पूरी तरह निःशुल्क होता था।

नालंदा विश्वविद्यालय को बनाने का उद्देश्य ध्यान और आध्यात्म के लिए स्थान को बनाने से था विश्वविद्यालय में हषवर्धन, धर्मपाल, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, आर्यवेद, नागार्जुन आदि कई अन्य विद्वानों ने पढ़ाई की थी और ऐसा कहा जाता है कि गौतम बुद्ध स्वम कई बार यहां आए और रुके भी थे।

परिसर

नालंदा विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना तथा सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ था। विश्वविद्यालय का पूरा परिसर विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था।

नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी 9 मंजिल की थी और इसके तीन भाग थे: रत्नरंजक, रत्नोदधि और रत्नसागर और इसमें ‘धर्म गूंज’ नामक लाइब्रेरी भी थी।उस समय यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन आदि कई विषय पढ़ाएं जाते थे।

नालंदा विश्वविद्यालय का पतन


अभिलेखों से पता चलता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों ने तीन बार नष्ट किया।

सर्वप्रथम नालंदा विश्वविद्यालय का विनाश स्कंदगुप्त (455-467) ईस्वी) के शासनकाल के दौरान मिहिरकुल के तहत ह्यून के कारण हुआ था। लेकिन स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों ने पुस्तकालय की मरम्मत करवाई और एक बड़ी इमारत के साथ सुधार किया था।

द्वितीय विनाश 7वीं शताब्दी के आरंभ में गौदास ने किया था। राजा हर्षवर्धन (606-648) ईस्वी) के द्वारा विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई गई।

नालंदा विश्वविद्यालय किसने जलाया था?

तृतीय हमला 1193 में तुर्क सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की इमारत को नष्ट कर दिया तथा 9 मिलियन पांडुलिपियों से युक्त पुस्तकालय में आग लगा दी गई थी। धार्मिक ग्रंथों के जलने से  बौद्ध धर्म सैकड़ों वर्षों तक उभर नहीं पाया। 

आखिर क्यों बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों नष्ट कर दिया था?

बात उस समय की है जब बख्तियार खिलजी द्वारा उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था कुछ समय बाद बख्तियार खिलजी गंभीर बीमार हो गया उसने अपने हकीमों से बहुत इलाज करवाया किन्तु वह ठीक नहीं हो सका और मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया। 

तभी किसी ने उसे सलाह दी कि वह नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र से अपना इलाज करवाए।परन्तु खिलजी इसके लिए तैयार नहीं हुआ हकीमों पर ज्यादा भरोसा उसको मरणासन्न स्थिति में ले गया अर्थात उसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ वह यह स्वीकारने को तैयार नहीं था की भारतीय वैद्य उसके हकीमों से ज्यादा ज्ञानी और विद्वान् हैं या ज्यादा अच्छे चिकित्सक हो सकते हैं।

लेकिन अपनी मरणासन्न स्थिति से निकलने के लिए बख्तियार खिलजी को नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को बुलवाना ही पड़ा । किन्तु  बख्तियार खिलजी के द्वारा आचार्य राहुल श्रीभद्र के सामने एक अनोखी शर्त रखी और शर्त इस प्रकार थी।

मैं तुम्हारे द्वारा दी गई किसी भी प्रकार की दवा का सेवन नहीं करूंगा तुम मुझे बिना दवाई के सेवन के बिना ठीक करे।

आचार्य राहुल श्रीभद्र ने बख्तियार खिलजी द्वारा प्रस्तुत शर्त स्वीकार कर ली।

कुछ समय पश्चात आचार्य श्री, बख्तियार खिलजी के पास इस्लामिक ग्रन्थ कुरान लेकर पहुंचे और कहां आप कुरान की पृष्ठ संख्या.. इतने से इतने तक प्रति दिन पढ़ लिजिये नियमित पढ़ने मात्र से आप ठीक हो जायेंगे। जब आचार्य श्री द्वारा कुरान पढ़ने को बोला गया तब यह सुनकर खिलजी प्रसन्न हो गया और ख़िलज़ी ने आचार्य श्री के कहने पर कुरान पढ़ना स्वीकार कर लिया।

खिलजी ने कुछ समय तक आचार्य श्री के बताए अनुसार कुरान को पढ़ा और वह स्वस्थ हो गया।

लेकिन शर्त अनुसार खिलजी का स्वस्थ होना संभव भारतीय विद्वान और शिक्षकों द्वारा देश से ज्ञान, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद ही था।
आचार्य श्रीभद्र ने देश से ज्ञान और आयुर्वेद का अनुभव कुछ इस प्रकार कराया कि श्रीभद्र ने कुरान के पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया जो सामान्य द्रष्टि से नहीं देखा जा सकता था।
जब खिलजी कुरान को पढ़ता , तब वह कुरान के पन्नों को थूक के माध्यम से आगे पीछे करता जिससे कुरान के पन्नों पर लगी दवाई का उस पर असर होने लगा।
जिसके फलस्वरूप खिलजी का स्वास्थ ठीक हो गया।

फलस्वरूप ,भारतीय चिकित्सिकीय ज्ञान और आयुर्वेद के खिलाफ खिलजी के मन में द्वेस की भावना उत्पन्न होने लगी ,वह परेशान रहने लगा कि भारतीय विद्वान और शिक्षक को उनके हकीमों से ज्यादा ज्ञान है।

द्वेस की भावना के चलते उसने उसने देश से ज्ञान, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करने का फैसला किया।
परिणाम स्वरूप खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में आग लगा लगभग 9 मिलियन पांडुलिपियों  और बौद्ध धर्म से संबंधित पुस्तको को जला दिया।

ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में इतनी किताबें थीं कि वह तीन महीने तक जलती रहीं। बाद मे खिलजी के आदेशानुसार  तुर्क आक्रमणकारियों ने नालंदा के हजारों धार्मिक विद्वानों और भिक्षुओं की भी हत्या कर दी गई।

फारसी पुस्तक ,तबाकत-ए-नासिरी के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का विनाश कैसे हुआ था ?जानिए

तबाकत-ए-नासिरी, फारसी

इतिहासकार 'मिनहाजुद्दीन सिराज' द्वारा रचित पुस्तक में मुहम्मद ग़ोरी तथा तुर्की सल्तनत के आरम्भिक इतिहास की लगभग 1260 ई. तक की जानकारी मिलती है।

पुस्तक में 'मिनहाजुद्दीन सिराज' ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भी बताया है कि खिलजी और उसकी तुर्की सेना नें हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को जला कर मार दिया गया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बौद्ध धर्म का विस्तार हो। वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था।

नालंदा के पुस्तकालय में उसने आग लगवा दी गई, जिससे पुस्तकालय में उपलब्ध पांडुलिपियों को जला दिया गया और 9 मिलियन पांडुलिपियों से युक्त पुस्तकालय में लगी आग महीनों तक आग जलती रही।

धार्मिक ग्रंथों के जलने से  बौद्ध धर्म  सैकड़ों वर्षों तक उभर नहीं पाया। 




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