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Chola style | chola temples | chola art and architecture | चोल शैली

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Chola style


चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। दक्षिण भारत और पास के अन्य देशों में चोल शासकों ने हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया।इनका वंश लगभग 700 ईस्वी में शुरू हुआ। 

अराजकता के दौर में चालुक्यो ,पल्लवों ,चौलों और राष्ट्रकूटो के बीच कई टकराव हुए। हालांकि कालांतर में  चौलों ने और भी अधिक प्रभावी और शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।चोल शासकों के उत्कर्ष का केन्द्र तंजौर था और यही उन्होंने चोल साम्राज्य की राजधानी बनाईं।  

प्राचीन काल में छोटे मंदिरों का निर्माण पत्थरों को तराश कर किया जाता था, मंदिर की दीवारों पर चित्रकारी के साथ राज्य के इतिहास को, राजाओं और रानीयों के रूप समान मूर्तियों को भी तराशा जाता था।

पत्थरों से बने मंदिर जैसे नार्थमलाई का विजयालय मंदिर,तिरूत्तकतलाई का सुन्दरेश्वर मंदिर पत्थरों कि शिलाओं से मंदिर बनाना सर्वप्रथम पल्लव शासकों से शुरू हुआ तब मंदिरों आकार में छोटे होते थे। मंदिरों पत्थरों और चट्टानों को तराश कर बनते थे। मंदिरों को रथ का रूप आदि पल्लवो की विशेषताएं थीं। 

मंदिर एक आयताकार स्तंभ हांल जो मंदिर के गोपुरम (विमानम) से जुड़ा हुआ है। गोपुरम के शीर्ष पर कलसा (kalasa) तथा कलसा के साथ पिरामिड की तरह दिखाने वाले वर्ग आवर्तक स्तरों की श्रृंखला शामिल हैं। गोपुरमों को शिल्प एवं चित्रकारी से अत्यधिक सजाया जाता है। मंदिर में पौराणिक चरित्र वाले जानवरों जैसे शेर, हाथी का इस्तेमाल होता था जो कि मंदिर के प्रधान देवता से संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिए कोरंगानाथं मंदिर कि दक्षिण की दीवार में 'काली' की आकृतियां उकेरी हुईं है जो लक्ष्मी और सरस्वती के मध्य में स्थित है जबकि एक असुर या दानव को नीचे दिखाया गया है और गण देवताओं से घिरे हुए देखा जा सकता है।    

मंदिर के खंबे और प्लास्तर (pillasters) जो हमेशा के लिए लियोग्राफ ( पौराणिक जानवरों जैसे शेर का भाग , हाथी का मुंह) से सजे थे। पल्लव शैली में कैपिटल (capital) और अबैकस (abacus) में भी परिवर्तन हुए। शाफ्ट (Shaft) और कैपिटल (capital) के जंक्शन पर एक मोल्डिंग (जैसे पद्म बंधम ) प्रदान किया गया।पांट (कुंभ) का एक रूप कैपिटल (capital) के नीचे से जोडां गया था जबकि अबैकस (abacus) को अधिक विस्तारित किया गया था।ताकि व्यापक अबैकस (abacus) के नीचे फूल-आकार में चिन्हित आनुपातिकता (proportionality) और स्थिरता (stability) का एक क्रम उत्पन्न हो।

निर्माण के घटनाक्रम स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि चोल शासकों ने अपनी वास्तुकला शैली बनाना शुरू कर दिया था।

समय के साथ, इस शैली ने परिपक्वता हासिल की जिसे 1000 ईस्वी में निर्मित तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में आसानी से देखा जा सकता है।

मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम्‌ के भीतर एक चौकोर मंडप है। वहां चबूतरे पर नन्दी जी विराजमान हैं। नन्दी जी की यह प्रतिमा 6 मीटर लंबी, 2.6 मीटर चौड़ी तथा 3.7 मीटर ऊंची है। भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नन्दी जी की यह दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।

यह मंदिर 55 मीटर लंबा और 25 मीटर चौड़ा है। मंदिर की सबसे उत्कृष्ट विशेषता इसकी भव्य मीनार (विमानम) है। अभयारण्य कक्ष का प्लान लगभग 25 मीटर वर्गाकार है।जो लंबवत रूप में 15 मीटर (बड़ा) की ऊंचाई तक बढ़ता है। जहां से टांवर कि तरह घटते हुए टीयर या जोन (छपरा) में 58 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। 

मंदिर भगवान शिव की आराधना को समर्पित है।इस मंदिर के निर्माण कला की एक विशेषता यह है कि इसके गुबंद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती है शिखर पर स्वर्ण कलश स्थित है अनुमानतः इसका भार 80 टन है।यह बौद्ध स्तूप से मिलता जुलता है।यह एक ही पाषाण से बना हुआ है। तंजावुर विमना आकार से विशाल ही नहीं बल्कि अपनी खुबसूरती से आनुपातिक (proportioned) और संतुलित (delicated balance) रूप से स्थिर है कि यह एक चमकते हुए सितारे की तरह हवा में लटका हुआ दिखाई देता है।

चोल शासकों का गंगैकोण्ड चोलपुरम में दूसरा मंदिर है।यह तमिलनाडु के तिचुरापल्ली जिले में स्थित है।इसे राजेंद्र चोल प्रथम ने (1015-1044) बनवाया था।यह मंदिर 104 मीटर लंबा और 34 मीटर चौड़ा है। मंदिर का असेंबली हांल 54 मीटर और 29 मीटर चौड़ा है। जिसमें 190 खम्भे है। मंदिर के गर्भगृह से विमान (विमानम) की उंचाई 46 मीटर है।यह साइट प्लान में वर्गाकार है। मंदिर की विशेषताएं इस प्रकार है जैसे अप-राइट (up-right) ग्राउंड मंजिला, टैपिंग सेक्सन और मंदिर का कलशा (kalasa)






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